आलू (अंग्रेज़ी: Potato) एक सब्जी है। वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से यह एक तना है। इसकी उद्गम स्थान दक्षिण अमेरिका का पेरू (संदर्भ) है। यह गेहूं, धान तथा मक्का के बाद सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है। भारत में यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में उगाया जाता है। यह जमीन के नीचे पैदा होता है। आलू के उत्पादन में चीन और रूस के बाद भारत तीसरे स्थान पर है।
इटावा - बकेवर मार्ग के निकट, भारत में आलू की खेती
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक अनुसंधान से यह निष्कर्ष निकाला कि पेरू के किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं। सोलहवीं सदी में स्पेन ने अपने दक्षिण अमेरिकी उपनिवेशों से आलू को यूरोप पहुंचाया उसके बाद ब्रिटेन जैसे देशों ने आलू को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। आज भी आयरलैंड तथा रूस की अधिकांश जनता आलू पर निर्भर है। भारत में आलू पुर्तगालियो द्वारा लाया गया | भारत में यह सब से लोकप्रिय सब्जी है। इसे सभी प्रकार की सब्जियों के साथ मिला कर पका सकते हैं।
आलू से अनेक खाद्य सामग्री बनती है जैसे वड़ापाव, चाट, आलू भरी कचौड़ी, चिप्स, पापड़, फ्रेंचफ्राइस, समोसा, टिक्की, चोखा आदि। आलू को अन्य सब्जियों के साथ मिला कर तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं।
कोल्ड स्टोरेज में संरक्षण हेतु जाती आलू की बोरियो से लदी ट्रालियां
वैसे तो आलू भारत में ज़्यादातर लोगों की पसंदीदा सब्जी है लेकिन कई लोग इसे अधिक चर्बी वाला समझकर खाने से परहेज करते हैं। परंतु आलू में कुछ उपयोगी गुण भी हैं। आलू में विटामिन सी, बी कॉम्पलेक्स तथा आयरन , कैल्शियम, मैंगनीज, फास्फोरस तत्त्व होते हैं। इसके अलावा आलू में कई औषधीय गुण होने के साथ सौंदर्यवर्धक गुण भी है जैसे यदि त्वचा का कोई भाग जल जाता है उस पर कच्चा आलू कुचलकर तुरंत लगा देने से आराम मिलता है। [1]
आलू एक अर्द्धसडनशील सब्जी वाली फसल है। इसकी खेती रबी मौसम या शरदऋतु में की जाती है। इसकी उपज क्षमता समय के अनुसार सभी फसलों से ज्यादा है इसलिए इसको अकाल नाशक फसल भी कहते हैं। इसका प्रत्येक कंद पोषक तत्वों का भण्डार है, जो बच्चों से लेकर बूढों तक के शरीर का पोषण करता है। अब तो आलू एक उत्तम पोष्टिक आहार के रूप में व्यवहार होने लगा है। बढ़ती आबादी के कुपोषण एवं भुखमरी से बचाने में एक मात्र यही फसल मददगार है।
ऊपर वाली भीठ जमीन जो जल जमाव एवं ऊसर से रहित हो तथा जहाँ सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित हो वह खेत आलू की खेती के लिए उपयुक्त है। खरीफ मक्का एवं अगात धान से खाली किए गए खेत में भी इसकी खेती की जाती है।
ट्रैक्टर चालित मिट्टी पलटने वाले डिस्क प्लाउ या एम.बी. प्लाउ से एक जुताई करने के बाद डिस्क हैरो 12 तबा से दो चास (एक बार) करने के बाद कल्टी वेटर यानि नौफारा से दो चास (एक बार) करने के बाद खेत आलू की रोपनी योग्य तैयार हो जाता है। प्रत्येक जुताई में दो दिनों का अंतर रखने से खर-पतवार में कमी आती है तथा मिट्टी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक जुताई के बाद हेंगा तथा खर-पतवार निकालने की व्यवस्था की जाती है। ऐसा करने से खेत की नमी बनी रहेगी तथा खेत खर-पतवार से मुक्त हो जाएगा।
खर-पतवार से मुक्ति के लिए जुताई से एक सप्ताह पूर्व राउंड अप नामक तृणनाशी दवा जिसमें ग्लायफोसेट नामक रसायन (42 प्रतिशत) पाया जाता है उसका प्रति लीटर पानी में 2.5 (अढ़ाई) मिली लीटर दवा का घोल बनाकर छिड़काव करने से फसल लगने के बाद खर-पतवार में काफी कमी हो जाती है।
आलू बहुत खाद खाने वाली फसल है। यह मिट्टी के ऊपरी सतह से ही भोजन प्राप्त करती है। इसलिए इसे प्रचुर मात्रा में जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होती है।
इसमें सड़े गोबर की खाद 200 क्विंटल तथा 5 क्विंटल खल्ली प्रति हें. की दर से डाला जाता है। खल्ली में अंडी, सरसों, नीम एवं करंज जो भी आसानी से मिल जाय उसका व्यवहार करे। ऐसा करने से मिट्टी की उर्वराशक्ति हमेशा कायम रहती है तथा रासायनिक उर्वरक पौधों को आवश्यकतानुसार सही समय पर मिलता रहता है।
रासायनिक उर्वरकों में 150 किलोग्राम नेत्रजन 330 किलोग्राम यूरिया के रूप में प्रति हें. की दर से डाला जाता है। यूरिया की आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम रोपनी के समय तथा शेष 165 किलोग्राम रोपनी के 30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाने के समय डाला जाता है। 90 किलोग्राम स्फुर तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हें. की दर से डाला जाता है। स्फुर के लिए डी.ए.पी. या सिंगल सुपर फास्फेट दोनों में से किसी एक ही खाद का प्रयोग करें। डी.ए.पी. की मात्रा 200 किलोग्राम प्रति हें. तथा सिंगल सुपर फास्फेट की मात्रा 560 किलोग्राम प्रति हें. तथा पोटाश के लिए 170 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ़ पोटाश प्रति हें. की दर से व्यवहार करें।
सभी उर्वरकों को एक साथ मिलाकर अंतिम जुलाई के पहले खेत में छिंठ कर जुताई के बाद पाटा देकर मिट्टी में मिला दिया जाता है।
रोपनी के समय आलू की पंक्तियों में खाद डालना अधिक लाभकर है परन्तु ध्यान रहे उर्वरक एवं आलू के कंद में सीधा सम्पर्क न हो नहीं तो कंद सड़ सकता है। इसलिए व्हील हो या लहसूनिया हल से नाला बनाकर उसी में खाद डालें। खाद की नाली से 5 से 10 सेंमी. की दूरी पर दूसरी नाली में आलू का कंद डालें।
यदि पोटेटो प्लांटर उपलब्ध हो तो उसके अनुसार उर्वरक प्रयोग में परिवर्तन किया जा सकता है।
हस्त नक्षत्र के बाद एवं दीपावली के दिन तक आलू रोपनी का उत्तम समय है। वैसे अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक आलू की रोपनी की जाती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मुख्यकालीन रोप 5 नवम्बर से 20 नवम्बर तक पूरा कर लें।
आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार प्रभेदों का चयन करें। राजेन्द्र आलू -3, कुफ्री ज्योति, कुफ्री बादशाह, कुफ्री पोखराज, कुफ्री सतलज, कुफ्री आनन्द एवं कुफ्री बहार मधय अगात के लिए प्रचलित प्रभेद हैं जो 90 दिन से लेकर 105 दिनों में परिपक्व हो जाता है।
राजेन्द्र आलू -1, कुफ्री सिंदुरी एवं कुफ्री लालिमा आलू के प्रचलित पिछात प्रभेद हैं जो 120 दिन से लेकर 130 दिन तक परिपक्व हो जाते है।
आलू का बीज दर इसके कंद के वजन, दो पंक्तियों के बीच की दूरी तथा प्रत्येक पंक्ति में दो पौधों के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। प्रति कंद 10 ग्राम से 30 ग्राम तक वजन वाले आलू की रोपनी करने पर प्रति हें. 10 क्विंटल से लेकर 30 क्विंटल तक आलू के कंद की आवश्यकता होती है।
शीत-भंडार से आलू निकालने के बाद उसे त्रिपाल या पक्की फर्श पर छायादार एवं हवादार जगह में फैलाकर कम से कम एक सप्ताह तक रखा जाता है। सड़े एवं कटे कंद को प्रतिदिन निकालते रहना चाहिए। जब आलू के कंद में अंकुरण निकलना प्रारंभ हो जाय तब रासायनिक बीजोपचार के बाद रोपनी करनी चाहिए।
शीत भंडार से निकाले कंद को फफूंद एवं बैक्टिरिया जनित छुआ-छुत रोगों से सुरक्षा के लिए फफूंदनाशक एवं एन्टीवायोटिक दवा का व्यवहार किया जाता है। इसके लिए ड्राम, बाल्टी, नाद या टिन में नाप कर पानी लिया जाता है। प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम इमिशान-6 तथा आधाग्राम यानि 500 मिलीग्राम स्ट्रोप्टोसाइक्लिन एन्टीवायोटिक दवा का पाउडर मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। इस घोल में कंद को 15 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद घोल से आलू को निकाल कर त्रिपाल या खल्ली बोरा पर छायादार स्थान में फैला कर रखा जाता है ताकि कंद की नमी कम हो जाय। घोल बहुत गंदा हो जाने पर या बहुत कम हो जाने पर उस घोल को फेंक कर फिर से पानी डालकर नया घोल तैयार कर लिया जाता है। फफूंदनाशक दवाओं में घोल तैयार करने वास्ते इमिशान-6 सस्ता पड़ता है। इसके अभाव में इन्डोफिल एम.-45, कैप्टाफ या ब्लाइटाक्स 2.5 ग्राम मात्र प्रति लीटर पानी में घोलकर घोल बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि रासायनिक बीजोपचार आवश्यक है। ऐसा करने से खेत में आलू की सड़न रुक जाती है तथा कंद की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है।
आलू को शुद्ध फसल के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 40 सें.मी. से लेकर 600 सें.मी. तक रखें परन्तु, मक्का में आलू की अंतरवर्ती खेती के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 60 सें.मी. रखें। यदि ईख में आलू की अंतरवर्ती खेती करनी हो तो ईख की दो पंक्तियों के बीच की दूरी के आधार पर ईख को दो पंक्तियों के बीच में 40 सें.मी. से लेकर 50 सें.मी. की दूरी पर आलू की दो पंक्तियाँ रखें। प्रत्येक कतार में दो कंद के बीच की दूरी 15 सें.मी. से लेकर 20 सें.मी. तक रखें। छोटे कंद को 15 सें.मी. की दूरी पर तथा बड़े कंद को 20 सें.मी. की दूरी पर रोपनी करें।
आलू रोपने के समय ही कुदाली से मिट्टी चढ़ाकर लगभग 15 सें.मी. ऊँचा मेड बना दिया जाता है तथा उसे कुदाली से हल्का थप-थप कर मिट्टी दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी की नमी बनी रहे तथा सिंचाई में भी सुविधा हो।
यदि सुविधा हो तो बड़े खेत में पोटेटो प्लांटर से भी रोपनी की जाती है। इसके द्वारा समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है।
यदि आलू में मक्का लगाना चाहते है तो आलू की मेड के ठीक नीचे सटाकर आलू रोपनी के पाँच दिन के अंदर खुरपी से 30 सें.मी. की दूरी पर मक्का बीज की बुआई कर दें। ऐसा करने से आलू के साथ सिंचाई में भी बाधा न होगी। मक्का-आलू साथ लगाने पर मक्का के लिए पूरी खाद की मात्रा तथा आलू के लिए आधी खाद की मात्रा का प्रयोग करें। मक्का-आलू साथ लगाने पर एक ही खेत से एक ही सीजन में कम लागत में दोनों फसल की प्राप्ति हो जाती है तथा आलू का क्षेत्रफल भी बढ़ सकता है। बचे हुए खेत में दूसरी फसल लगायी जा सकती है।
कहावत है – आलू एवं मक्का पानी चाटता है – पीता नही है। इसलिए इसमें एक बार में थोड़ा पानी कम अंतराल पर देना अधिक उपज के लिए लाभदायक है। चूँकि खाद की मात्रा ज्यादा रखी जाती है इसलिए रोपनी के 10 दिन बाद परन्तु 20 दिन के अंदर ही प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने से अकुरण शीघ्र होगा तथा प्रति पौधा कंद की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उपज में दो गुणी वृद्धि हो जाती है। प्रथम सिंचाई समय पर करने से खेत में डाले गए खाद का उपयोग फसलों द्वारा प्रारंभ से ही आवश्यकतानुसार होने लगता है। दो सिंचाई के बीज का समय खेत की मिट्टी की दशा एवं अनुभव के आधार पर घटाया बढ़ाया जा सकता है। फिर भी दो सिंचाई के बीच 20 दिन से ज्यादा अंतर न रखें। खुदाई के 10 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर दें। ऐसा करने से खुदाई के समय कंद स्वच्छ निकलेंगे। ध्यान रखें प्रत्येक सिंचाई में आधी नाली तक ही पानी दें ताकि शेष भाग रिसाब द्वारा जम हो जाय।
प्रथम सिंचाई के बाद यानि रोपनी के 25 दिन बाद खुरपी से खर-पतवार निकाल दिया जाता है। पूरी फसल अवधि में दो बार निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
रोपनी के 30 दिन बाद दो पंक्तियों के बीच में यूरिया का शेष आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर कुदाली से मिट्टी बनाकर प्रत्येक पंक्ति में मिट्टी चढ़ा दिया जाता है तथा कुदाली से हल्का थप-थपाकर दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी में पकड़ बनी रहें।
भूमिगत कीटों से सुरक्षा हेतु रोपनी के समय ही फोरेट-10 जी या डर्सभान 10 जी. जिसमें क्लोरोपायरिफास नामक कीट नाशी दवा रहता है उसका 10 किलोग्राम प्रति हें. की दर से उर्वरकों के साथ ही मिलाकर रोपनी पूर्व व्यवहार किया जाता है। ऐसा करने से धड़ छेदक कीटों से जी मिट्टी में ही दबे रहते हैं उसे सुरक्षा मिल जाती है।
पिछात झुलसा रोग से बचाव के लिए 20 दिसम्बर से लेकर 20 जनवरी तक 10 से 15 दिन के अंतराल पर फफूंदनाशक दवा का छिड़काव करें। प्रथम छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में आवश्यकतानुसार रीडोमील फफूंदनाशक दवा का 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम दवा एवं 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लगभग 60 टिन पानी प्रति हें. लग जाता है। ऐसा करने से फसल सुरक्षा बढ़ जाती है।
14 जनवरी के आस-पास लाही गिरने का समय हो जाता है। यदि लाही का प्रकोप हो तो मेटासिस्टोक्स नामक कीटनाशी दवा का प्रति लीटर पानी में एक मिली. दवा डालकर स्प्रे किया जाता है। दवा नापने के लिए प्लास्टिक सिरीज का व्यवहार करें। लाही नियंत्रण से आलू में कुकरी रोग यानि लीफ रोल नाम विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है।
आलू रोपनी के 60 दिन बाद प्रत्येक पंक्ति में घूमकर फसल को देखा करें। यदि आलू का कंद दिखलाई पड़े तो उसे मिट्टी से ढँक दें नहीं तो उसका रंग हरा जो जायगा। तथा कंदों का बढ़ना रुक जायगा। चूहा द्वारा क्षति का भी अंदाज लग जायगा। चूहा के आक्रमण पर प्रत्येक बिल में 10 ग्राम थीमेट नामक कीटनाशी दवा डालकर छेद को बंद कर दें। ऐसा करने से चूहा बिल में ही मर जायगा या नहीं तो खेत छोड़कर भाग जायगा।
यदि आलू को बीज के लिए या अधिक दिनों तक रखना हो तो परिपक्वता अवधि पूरी होने पर लत्तर काट दें। लत्तर काटने के 10 दिन बाद खुदाई करें। ऐसा करने से कंद का छिलका मुटाता है। जिससे आलू की भंडारण क्षमता बढ़ती है तथा सडन में कमी आती है।
बाजार भाव एवं आवश्यकता को देखते हुए रोपनी के 60 दिन बाद आलू का खुदाई की जाती है। यदि भंडारण के लिए आलू रखना हो तो कंद की परिपक्वता की जाँच के बाद ही खुदाई करें। परिपक्वता की जाँच के लिए कंद को हाथ में रखकर अंगूठा से दवाकर फिसलाया जाता है यदि ऐसा करने पर कंद का छिलका अगल नहीं होता है तो समझा जाता है कि कंद परिपक्व हो गया है। ऐसे कंद की खुदाई करने से भंडारण के कंद सड़ता नहीं है। खुदाई दिन के 12.00 बजे तक पूरा कर लेनी चाहिए। खुदे कंद को खुले धूप में न रखकर छायादार जगह में रखा जाता है। धूप में रखने पर भंडारण क्षमता घट जाती है। 15 मार्च तक आलू के सभी प्रभेदों की खुदाई अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। खुरपी या पोटेटो डीगर से खुदाई की जाती है। खुरपी से खुदाई करने पर ध्यान रहे आलू कटने न पावें। कहावत है – आलू नहीं कटती हैं, तकदीर कट जाती है।
यदि आलू को शीत भंडार भेजना है तो कटे एवं सड़े आलू की छाँटकर खुदाई के एक सप्ताह बाद बोरा में बंद कर भेज दें। प्रत्येक बोरा के अंदर प्रभेद का नाम लिख दें तथा बोरा के ऊपर भी अपना पता लिख दें।
परिपक्वता अवधि एवं अनुशंसित फसल प्रणाली को अपनाने पर रोपनी के 60 दिन बाद 100 क्विंटल, 75 दिन बाद 200 क्विंटल, 90 दिन बाद, 300 क्विंटल तथा 105 दिन बाद प्रभेद के अनुसार 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जाती है। परन्तु यदि प्रथम सिंचाई रोपनी के 10 दिन बाद तथा 20 दिन के अंदर न हुआ तो उपज आधी हो जायगी।
खेत गहरा न जोता जाए तो बहुत बार जोतने से भी क्या लाभ होगा? इसलिए गहराई से जोतना जरूरी है। अच्छी फसल के लिए खेती की हेंगाई मतलब खेती की मिट्टी फोड़ना बहुत जरूरी है।
आलू की खेती कंदवर्गीय सब्जी के रूप में की जाती है | आलू उत्पादन के क्षेत्र में भारत को विश्व में तीसरा स्थान प्राप्त है | भारत में आलू को बहुत अधिक पसंद किया जाता है, यह एक ऐसी सब्जी है, जिसे किसी भी सब्जी के साथ बनाया जा सकता है | केरल और तमिलनाडु राज्यों को छोड़ दे तो भारत में आलू की खेती सभी जगहों पर की जाती है | आलू का सेवन शरीर के लिए लाभदायक होता है, किन्तु इसके अधिक सेवन से शरीर में चर्बी बढ़ने जैसी समस्या हो सकती है | आलू में अनेक प्रकार के पोषक तत्व विटामिन सी, बी, मैंगनीज, कैल्शियम, फासफोरस और आयरन पाया जाता है | इसके साथ ही इसमें पानी की मात्रा भी सबसे अधिक होती है|
सब्जी के अलावा आलू के इस्तेमाल से अनेक प्रकार की खाने की चीज़े बनाई जाती है, जिसमे वड़ापाव, आलू भरी कचौड़ी, चिप्स, टिक्की और चोखा, फ्रेंच फ्राइज, समोसा, पापड़, चाट शामिल है, जिस वजह से बाजार में आलू की मांग भी बनी रहती है | आलू के कंद भूमि के अंदर पाए जाते है, जिस वजह से इसकी खेती के लिए भूमि कार्बनिक तत्व से भरपूर और उचित जल निकासी वाली होनी चाहिये | भारत में आलू की खेती रबी की फसल के साथ की जाती है | किसान भाई आलू की खेती कर अच्छी कमाई कर सकते है, यदि आप भी आलू की खेती करने का मन बना रहे है, तो इस लेख में आपको आलू की खेती कैसे करें (Potato Farming in Hindi) तथा आलू की खेती से कमाई इसके बारे में जानकारी दी जा रही है|
आलू की खेती में कार्बनिक तत्वों से भरपूर उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है | इसकी खेती के लिए उचित जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है | सामान्य P.H. मान वाली भूमि में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है | समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु आलू की फसल के लिए उचित मानी जाती है | भारत में इसकी खेती सर्दियों के मौसम में की जाती है, किन्तु सर्दियों में गिरने वाला पाला इसके पौधों को हानि पहुँचाता है |
अधिक गर्म जलवायु में भी इसके फल ख़राब हो जाते है | जिस वजह से इसके पौधों को हल्की बारिश की आवश्यकता होती है | आलू के अच्छे उत्पादन के लिए सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है, अधिक तथा कम तापमान इसके पौधों को हानि पहुँचाता है | इसके पौधे अधिकतम 25 डिग्री तथा न्यूनतम 15 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकते है | इससे अधिक का तापमान पौधों के लिए हानिकारक होता है |
वर्तमान समय में अलग-अलग जगह पर अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए आलू की कई उन्नत किस्मो को तैयार किया गया है |
जे एच- 222
इस किस्म को जवाहर नाम से भी पुकारा जाता है | यह आलू की एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 90 से 110 दिन का समय लग जाता है | यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 250 से 300 क्विंटल का उत्पादन दे देती है | इसके पौधों में झुलसा रोग नहीं लगता है |
लेडी रोसैट्टा
इस किस्म को खासकर गुजरात और पंजाब में अधिक उत्पादन देने के लिए उगाया जाता है | इसमें निकलने वाले पौधे सामान्य आकार के होते है, जिन्हे तैयार होने में 120 दिन का समय लग जाता है, जिसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 67 टन के आसपास पाया जाता है |
कुफरी चंद्रमुखी
कुफरी चंद्रमुखी किस्म अगेती फसल के रूप में उगाई जाती है | इसके पौधे रोपाई के 90 दिन बाद पैदावार देना आरम्भ कर देते है | इसमें निकलने वाले आलू का रंग हल्का भूरा होता है | यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 200 से 250 क्विंटल की पैदावार दे देती है | इसके पौधों में पछेती अंगमारी रोग नहीं लगता है |
कुफरी बहार
आलू की यह किस्म ई 3792 के नाम से भी जानी जाती है| इसे अगेती और पछेती फसल के लिए उगाया जाता है| अगेती रूप में की गई फसल की रोपाई के 90 दिन बाद और पछेती रूप में की गई रोपाई से 130 दिन बाद उत्पादन प्राप्त होता है | इसमें निकलने वाले कंद हल्के सफ़ेद रंग के होते है |
कुफरी ज्योति
आलू की इस उन्नत क़िस्म को पर्वतीय क्षेत्रों में उगाया जाता है | इसके कंद बीज रोपाई के तक़रीबन 130 दिन बाद उत्पादन देना आरम्भ कर देते है | मैदानी क्षेत्रों में इस क़िस्म को तैयार होने में केवल 80 दिन का समय लगता है | इस क़िस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 150 से 250 क्विंटल तक होता है |
कुफरी लवकर
इस किस्म के पौधों को सबसे अधिक महाराष्ट्र में उगाया जाता है | इसके पौधे बीज रोपाई के 2 से 3 महीने बाद उत्पादन देना आरम्भ कर देते है | इसके कंद सफ़ेद रंग के होते है, जिसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 250 क्विंटल के आसपास होता है |
कुफरी अशोक
इस किस्म के पौधों को तैयार होने में 75 से 80 दिन का समय लग जाता है | आलू की यह किस्म मैदानी भागो में उगाई जाती है | इसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 280 क्विंटल तक पाया जाता है |
जे. ई. एक्स. 166 सी.
यह किस्म भारत के उत्तरी राज्यों में अधिक मात्रा में उगाई जाती है | इस किस्म के पौधों को फसल देने में 90 दिन का समय लग जाता है | जिसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 300 क्विंटल तक होता है |
इसके अलावा भी आलू की कई उन्नत किस्में है, जिन्हे अधिक पैदावार के लिए उगाया जा रहा है | आलू की उन्नत किस्म इस प्रकार है :- कुफरी सतलुज, कुफरी बहार, कुफरी पुष्कर, कुफरी बादशाह, कुफरी चिप्सोना- 4, कुफरी सिंधुरी, कुफरी चिप्सोना- 1, कुफरी चिप्सोना- 3, कुफरी लालिमा, कुफरी ज्योति, कुफरी सदाबहार, कुफरी सतुलज, कुफरी फ़्राईसोना आदि |
आलू की खेती भुरभुरी मिट्टी में की जाती है | इसके लिए सबसे पहले खेत में मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर दी जाती है | जुताई के बाद खेत को कुछ दिनों के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है | इसके बाद खेत में प्राकृतिक खाद के रूप में 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट को डालकर उसकी फिर से जुताई कर दी जाती है | इससे खेत की मिट्टी में गोबर की खाद अच्छे से मिल जाती है | इसके बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है, पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी ऊपर से सूखी दिखाई देने लगती है, तब रासायनिक खाद के रूप में डी.ए.पी. के दो बोरे खेत में डालकर जुताई कर दी जाती है|
इसके बाद रोटावेटर लगाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर दिया जाता है, मिट्टी के भुरभुरा होने के पश्चात पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है | इसके बाद खेत में पौधों की रोपाई के लिए मेड़ को तैयार कर लिया जाता है | इसके अलावा पौधों के विकास के समय 25 KG यूरिया की मात्रा को सिंचाई के साथ देना होता है |
आलू के बीजो की रोपाई आलू के रूप में की जाती है | इसके लिए छोटे आलू के कंदो खेत में लगाया जाता है | कंदो की रोपाई के पहले उन्हें इंडोफिल की उचित मात्रा को पानी में डालकर मिला लिया जाता है, जिसके बाद कंद को इस घोल में 15 मिनट तक रखा जाता है | इसके बाद इन कंदो की रोपाई की जाती है | एक हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 15 से 30 क्विंटल कंदो की आवश्यकता होती है|
कंदो की रोपाई के लिए समतल भूमि में एक फ़ीट की दूरी रखते हुए मेड़ो को तैयार कर लिया जाता है, तथा प्रत्येक मेड़ की चौड़ाई एक फ़ीट तक रखी जाती है | इसके बाद इन कंदो को 20 से 25 CM की दूरी रखते हुए 5 से 7 CM की गहराई में लगाया जाता है|
चूंकि आलू की खेती भी रबी की फसल के साथ की जाती है, इसलिए इसके पौधों की रोपाई सर्दियों के मौसम में की जाती है | अक्टूबर और नवंबर माह के मध्य इसके कंदो की रोपाई करना उचित माना जाता है|
यदि आलू के कंदो की रोपाई नमी वाली भूमि में की जाती है, तो इन्हे रोपाई के 5 दिन बाद पहली सिंचाई की आवश्यकता होती है | इसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देना होता है | आलू के खेत में कंदो का विकास अच्छे से हो इसके लिए खेत में नमी बनाई रखनी होती है |
आलू के खेत में खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए रासायनिक और प्राकृतिक दोनों ही विधियों का इस्तेमाल किया जाता है | रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए पेंडामेथालिन की उचित मात्रा का छिड़काव बीज रोपाई के पश्चात किया जाता है | इससे खरपतवार कम मात्रा में खेत में जन्म लेती है | प्राकृतिक विधि में खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए निराई – गुड़ाई की जाती है | इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के तक़रीबन 20 से 25 दिन बाद की जाती है | आलू के पौधों को दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है | जिसमे पहली गुड़ाई के बाद बाकी की गुड़ाइयो को 15 से 20 दिन बाद करना होता है |
अगेती अंगमारी
इस किस्म का रोग आलू के पौधों पर अकसर विकास के दौरान ही देखने को मिलता है | यह रोग पौधों पर नीचे से ऊपर की और बढ़ता है | अगेती अंगमारी रोग पौधों की पत्तियों पर आक्रमण कर उन्हें सूखाकर नष्ट कर देता है | इस रोग के लग जाने से पत्तियों की निचली सतह पर कोणीय भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते है | इस रोग से बचाव के लिए इंडोफिल या फाइटोलान की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर करना होता है |
ब्लैक स्कर्फ
इस किस्म का रोग पौधों पर अंकुरण के समय लगता है | इस रोग से प्रभावित पौधों पर काले रंग के धब्बे नज़र आने लगते है | रोग का आक्रमण अधिक होने पर पौधा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है | इस रोग की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा से कंदो को उपचारित कर लगाना होता है |
कटुआ कीट
आलू के पौधा पर यह रोग कीट के रूप में आक्रमण करता है | इस कीट रोग का लार्वा पौधों को उसकी सतह के समीप से काटकर कर नष्ट कर देता है | यह लार्वा पौधों पर अक्सर रात के समय देखने को मिलता है | आलू के पौधों को इस रोग से बचाने के लिए मेटारीजियम की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर किया जाता है |
हड्डा बीटल
यह एक किस्म का कीट रोग होता है, जो आलू के पौधों पर कीट के रूप में आक्रमण करता है, जिससे पौधे की पत्तियों पर जालीदार छेद दिखाई देने लगते है | यह कीट काले, पीले और लाल रंग के होते है | इस रोग से पौधों को बचाने के लिए ब्यूवेरिया के मिश्रण को खेत में डालना होता है |
फलों का हरा होना
इस किस्म का रोग अधिक तापमान और कंद के उखड जाने पर देखने को मिलता है | इस रोग से प्रभावित आलू के कंद हरे रंग के दिखाई देने लगते है | आलू की फसल में इस तरह की समस्या न हो इसके लिए खुले कंदो को मिट्टी से ढक देना चाहिए, तथा तापमान के अधिक होने पर खेत में नमी बनाये रखने के लिए पानी देते रहना चाहिए |
आलू की उन्नत किस्मो को तैयार होने में 80 से 90 दिन का समय लग जाता है| अधिक तापमान होने से पहले इसके कंदो को खोद कर निकाल लिया जाता है | वर्तमान समय में कंदो की खुदाई मशीन से भी की जा रही है | खुदाई के बाद उन्हें पानी से धोकर साफ कर लिया जाता है | इससे आलू की मिट्टी साफ हो जाती है | इसके बाद कंदो को उनके आकार के अनुसार अलग कर लिया जाता है | एक हेक्टेयर के खेत में 250 क्विंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है |
आलू का बाज़ारी भाव 600 से 1200 रूपए प्रति क्विंटल होता है, जिससे किसान भाई आलू की एक बार की फसल से डेढ़ से दो लाख की कमाई आसानी से जासकती है |